दो कविताएँ

तड़पाता ग्रीष्म 

हर तरफ शुष्क जमीन,
हरियाली नज़र आना नामुमकिन,
कठोर ऋतु, निर्दय गर्मी,
ढूँढनेसे भी न मिलती नमी!

सारी शक्ति इकठ्ठा किये,
लड़खड़ाता हौसला जगाये,
आखिर वह उठ पड़ता हैं,
आँगन की सफाई भी तो जरूरी हैं!

चारों कोनों में झाड़ू घुमाकर,
सूखे पत्तों का ढेर जमाकर,
पीठ सीधी कर, वह कमर घुमाता हैं,
एक बड़ा सा बूंद जमीन पर गिरता हैं!

आसमान की तरफ मुँह मोड़े,
कृतज्ञतासे हाथ जोड़े,
वह असीम आनंद में चीख उठता हैं,
हाय, पर ये क्या, वह पानी तो केवल पसीना हैं!
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बेरेहम मौंसम 

जल से भरपूर तालाब,
दिनबदिन सूखते हुए देखती हूँ,
बचेकुचे पानी में मछलियों को,
प्राणवायु के लिए तरसते देखती हूँ,
नमी से लदे हुए भारी बादलों की
हर तपती शाम को कल्पना करती हूँ,
बारिश जब होगी तो पहली बधाई किसे दूं,

बेहाल, बेताब, बेबस तो मैं खुद भी दिखती हूँ!!


अनिता मराठे


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