अनोखा गृहप्रवेश

 


"अरे, निधी, क्या तुमने किसी पेंटर को बुलाया था बेटा? पर अब तो तुम दोनों ऑफिस में हो, उसे संडे को आने को कह दूं?" सावित्री जी फोन पर अपनी बहू से पूछ रही थी।

तो उधरसे निधी का जवाब आया "ओह नो मम्मी, मैं तो भूल ही गयी थी। प्लीज अब आप ही रंग पसंद कर लिजीए। और हां, शाम को कारपेंटर के साथ वार्डरोब का डिजाइन भी फाइनल कर दिजीएगा। सॉरी मम्मी आप को ही देखना पड़ रहा है सब, पर मेरी अचानक से एक मिटींग आ गयी है शाम को।"

"कोई बात नहीं बेटा, मैं देख लूंगी।" कहते हुए सावित्रीजी ने पति के साथ मिलकर अपनी पसंद से सारे कलर्स और वॉलपेपर सिलेक्ट तो कर लिए पर उस पेंटर के जाने के बाद उनका गुस्सा फूट पड़ा।

"अब तो हद हो गई इन बच्चों की। अरे भाई, अपना घर सजाने तक का समय नहीं है इनके पास और एक हम हैं कि आज तक साँस का घर संभालते रहे और अब बहू का संभाल रहे हैं।" अपने पत्नी की बातें सुन अनिल जी मुस्करा रहे थे पर अपनी पसंद बताते हुए सावित्री की आंखों की चमक देख, उन्हे कहीं ना कहीं सुकून भी मिल रहा था।

"आप तो हँसते रहो बस और कुछ न कहो अपनी लाडली बहू से। पर अपनी ही गृहस्थी संवारने में भी इन आज कल की लड़कियों को रुचि नहीं, ये बात तो मेरे पल्ले पड़ने से रही।" सावित्रीजी दुख और अचरज के साथ बोल पड़ी।

 

वे याद कर रही थी किस प्रकार उनकी शादी के तुरंत बाद ही घर का सारा जिम्मा उनके सर आ गया था। साँस ससुर की देखभाल के साथ साथ छोटे देवर और ननंद की पढ़ाई और फिर शादी की जिम्मेदारीओं ने घर तो क्या अपने आप को भी सँवारने का वक्त न दिया था उन्हें। उनके पेंटींग का शौक भी बस मायके के दिवारों को सजाने तक ही सिमीत रह गया। देवर ने शादी के बाद अपना घर अलग बसा लिया था। अनिलजी की आय ज्यादा न थी, पर उन्ही पैसों से घर चलाकर सावित्री कुछ पैसे जोड़े रखती। ननंद जब भी घर आती, ससुरजी के हाथों में छुपके से पैसे थमाकर सावित्री उसे हमेशा शगुन के साथ ही विदा करती।

 

अपने मायके में बस एक छोटी बहन और वह भी शादी के बाद दुबई में रहने के कारण खुद के माता पिता के अंतिम समय में भी सावित्रीनेही उनकी देखभाल की थी। आज भी साँस ससुर के कड़क अनुशासन में रहते हुए और कड़वी बातों में छुपे उनके मीठे प्यार को समझते हुए सावित्रीजी हर रिश्ते को संजोए हुए थी। पर पति के साथ सुकून के दो पल भी नसीब ना होने का गम उनके दिल में हमेशा था। इसीलिए जब अपने एकलौते बेटे अनिकेत के शादी की बात चली तो उन्होंने अनिल जी से जिद करके बेटे बहू के लिए नया घर खरीदा। वे चाहती थी कि अनिकेत और निधी शादी के बाद रिश्तेदारीयाँ निभाने से पहले एक दूसरे के प्रति अपना प्यार निभाए। अपना घरौंदा अपने तरीके से सजाए, सँवारे जहां न कोई पाबंदी हो और ना ही कोई जिम्मेदारीयाँ। पर यहाँ तो गंगा उल्टी ही बह रही थी।

 

शादी के ६ महीनों बाद नये घर का पजेशन तो मिला पर बेटे और बहू की नौकरी की वजह से वहां के इंटेरिअर का सारा काम सावित्रीजी को ही देखना पड़ता। निधि वैसे तो बहुत खुशमिजाज लड़की थी और सासू माँ के साथ साथ अपनी अनुशासन प्रिय दादी सास से भी उसका रिश्ता बहू कम सहेली का ज्यादा था। पर अपने नये घर के सजावट में उसका कोई खास दिलचस्पी न दिखाना सावित्रीजी को अखर रहा था। जैसे तैसे २ महिनों बाद इंटीरियर का काम खत्म हुआ और सावित्रीजी ने घर में सब से परामर्श कर गृहप्रवेश के लिए एक अच्छा सा मुहूर्त तय किया। पूजा की तैयारियों को लेकर वे खास उत्साहित थी। अपने मायके से लेकर निधि के मायके तक सारे रिश्तेदारों को न्योता जा चुका था पर अचानक अनिकेत को काम के सिलसिले में कुछ दिनों के लिए लंदन जाना पड़ा। उसकी वापसी पूजा के दिन शाम को होनी थी तो अनिकेत ने पूजा में बैठने में अपनी असमर्थता जताई। इस बार सावित्री के साथ-साथ अनिलजी भी काफी नाराज हुए पर इतने ऐन वक्त पर पूजा की तारीख बदली भी नहीं जा सकती थी। तो अंततः उन दोनों ने पूजा में बैठने का निर्णय लिया।

 

गृहप्रवेश के दिन नया घर मेहमानों से भर गया। निधि दिलसे सबकी मेहमान नवाजी में लगी हुई थी और पूजा में बैठे-बैठे अपने बेटे को याद कर सावित्रीजी के आंखों के कौर गीले हो चले थे। आखिर शाम तक अनिकेत वापस आया तो अनिलजी ने खुशी से कहा, " बेटा, तुम दोनों के नए घर में तुम्हारा स्वागत है। तुम्हारी अनुपस्थिति में हमने पूजा तो संपन्न कर ली पर मैं चाहता हूं अब घर में पहला दिन तुम दोनों एक दूसरे के साथ बिताओ।" और उन्होंने सारे रिश्तेदारों को अपने घर चलने की गुजारिश की। बच्चों को छोड़ जाने की बात पर सावित्रीजी भावुक हो उठी। उन्होंने बहू को गले लगाते हुए कहा "निधि, भले ही मैं अनिकेत की मां हूँ पर एक बेटी के प्यार का एहसास मुझे तुम्हारे साथ रहने पर हुआ। चाहे अब हम अलग रहे पर तुम्हारी दादी साँस और मुझे तुम्हारी याद बहुत सताएगी बेटा, आती रहना और सदा खुश रहो तुम दोनों।" कहते हुए उनका दिल भर आया।" तो क्या आप अपनी इस बेटी की एक और ख्वाहीश पुरी करेंगी मम्मी? निधि अचानक ही बोल पड़ी। "पूजा में तो मैं बैठ न पाई पर क्या गृहप्रवेश की रस्म अदा की जाए? बिलकुल वैसे ही जैसे आपने मेरी शादी के वक्त की थी?"

 


निधि की इस मांग से सभी अचरज में पड़ गये पर बहु का मन समझ सावित्रीजी ने अपनी बहन और ननद के साथ मिलकर गृहप्रवेश की सारी तैयारियां की। चावल से भरा कलश द्वार पर सजाकर आरती का थाल हाथ में लिए उन्होंने निधि की और संकेत किया तो निधि वह थाल दादी साँस के हाथ में देते हुए सावित्रीजी का हाथ पकड़ उन्हें घर से बाहर ले आई और कहा "धकेलिए इस कलश को माँ और किजीए प्रवेश अपने घर में" बहू के मुँह से ऐसी बातें सुन सावित्री जी हक्की बक्की रह गई।

"ये क्या बचपना है निधि?" उन्होंने उसे लगभग डाँटते हुए पूछा।

तो अनिकेत ने कहा "ये बचपना नहीं हमारी ओर से आपके लिए सरप्राइज है मम्मा! इस घर में आज से मैं और निधि नहीं बल्कि आप और पापा रहेंगे। अरे इसलिए तो काम का बहाना कर हमने आप दोनों के हाथों से पूजा करवाईं।" "लेकिन....ये घर... तुम्हारे लिए... और दादा दादी..."

 

अनिल और सावित्रीजी के शब्द अति आश्चर्य के कारण गले में अटक रहे थे। "नहीं नहीं ऐसा नहीं हो सकता।" आखिर सावित्री जी ने अपनी बात पूरी की।"

"क्यों नहीं हो सकता भला?" अनिकेत के दादाजी ने आगे आतें हुए पूछा। "पापाजी आप भी" सावित्री को कुछ समझ में नहीं आ रहा था। \

"हां बहू, हमारी रजामंदी से ही तय हुआ है यह सब। सच कहूं तो बच्चों के इस अनोखे प्रस्ताव को सुन मेरी छाती तो अभिमान से फूल गई। इतने सालों के तुम्हारे त्याग और प्यार का ही ये फल है बेटा। तुम्हें तो अपनी परवरिश पर गर्व होना चाहिए" ससुरजी ने अपना कपकपाता हाथ सावित्री के मस्तिष्क पर फेरते हुए कहा। अपने पोते और पतोहू को देख उनकी आँखें खुशी से छलक गई।

निधि सावित्रीजी का हाथ अपने हाथों में लेकर बोली "मम्मीजी माना कि हमारे खुशहाल परिवार की नींव आपका सब के प्रति समर्पण है। लेकिन रिश्ते संवारने का मतलब इस नींव में अपनी इच्छाओं या भावनाओं को दबाना नहीं होता। आप हमेशा से अपना घर अपने हाथों से सजाना चाहती थी ना? तो अब देखिए हमने आपके जाने बिना ही चतुराई से सारा इंटीरियर आपके हाथों आप के तरीके से करवा लिया। जो आप मेरे लिए चाहती है माँ, वो मैं पहले आपके लिए चाहती हूं। तो सौंपेंगी ना आप अपनी थोड़ी सी जिम्मेदारीयाँ मुझे भी?" 

 

सावित्री ने जैसे ही अपने सासू माँ की तरफ देखा उसके कुछ कहने से पहले ही वे बोल पड़ी " देख सावित्री, इन लोगों जैसी बड़ी बड़ी बाते करने तो हमें ना आवे है पर वो का कहते आजकल की भासा में? हां 'मी टाईम' वो ले ले तू अब! जरा मैं भी तो अपने पतोहू के लाड़ लडालू! और होँ तू मेरी चिंता ना कर! अरे अपने परपोते का मुँह देखे बिना मुझे कुछ न होवे है।" और हँसते-हँसते उन्होंने अपने आशीर्वाद का तिलक अपने बेटे और बहू को लगाया।

 



सावित्रीजी की आँखें निरंतर बह रही थी। उन्होंने एक हाथ में अपनी साँस और दूसरे में अपनी बहू का हाथ लेकर जैसे ही अपने अरमानों का कलश अंदर की ओर धकेला तो चावल के हर एक दाने के साथ हजारों खुशियाँ घर में छा गई।

 

प्रेरणा चौक

 


8 comments:

  1. खूप मस्त लिहिली आहे कथा प्रेरणा 👌👌

    ReplyDelete
  2. खूप छान प्रेरणा!

    ReplyDelete
  3. वा...खूपच छान आणि touching कथा

    ReplyDelete
  4. बहुत अच्छा लिखती हैं आप । आपकी और कथाओं का इंतज़ार रहेगा ।

    ReplyDelete