मैं स्त्री हूँ...


ऐ स्त्री, तुम कभी पुरुष न बन पाओगी,
मगर मैं स्त्री हूँ, मैं क्यूँ पुरुष बनना चाहूँगी ?
मैं स्वतंत्र स्त्री हूँ, परतंत्र से क्यूँ जीना चाहूँगी,
आज़ाद हूँ, आज़ादी से ही जीवन बिताऊँगी।

ज्ञान की तलाश में जो मुझे छोड़ गया
मैं तो उसे छोड़ने में कभी न कतारूँगी
यशोधरा भी न बनना चाहूँगी 
स्वावलंबी हूँ वैसे ही रहना चाहूँगी। 

जब न थी कोई गलती मेरी शाप से शिला बन बैठी
मुक्ती देने लगी जरूरत फिर किसी अजनबी पुरुष की
मैं वो अबला अहिल्या न बनना चाहूँगी
स्वाधीन न करूँ किसीको खुद स्त्री रहना चाहूँगी। 

जिसने उठाये सवाल मेरे चरित्र पर
उसको भी अग्नी परीक्षा मैं दिलवाऊंगी
मैं सीता भी न बनना चाहूँगी
अनाधीन स्त्री हूँ, वैसे ही रहना चाहूँगी। 

जो गाती रही गुणगान उसके लेकर इकतारा
जो बन न पाया उसका सहारा
न मैं वो मीरा, न मैं वो राधा बनना चाहूँगी
स्वछंदी स्त्री हूँ, वैसे ही जीना चाहूँगी। 

थे वो पाँच बड़े धनुर्धारी बलवान
न बचा पाये लाज लज्जा जिसकी
मैं तो वो द्रौपदी भी न बनना चाहूँगी
खुद की इज्जत खुद बचाने आत्मनिर्भर बनना चाहूँगी। 

बांधी जिसने आंखों पर पट्टी
जिसके लिये बना ली अपनी दुनिया अंधेरी
मैं तो वो गांधारी भी न बनना चाहूँगी
दी है जो दृष्टि मुझे, अपने पथ पर ही चलना चाहूँगी। 

हाँ मैं नाजुक हूँ, पर कमजोर नही
हाँ मैं सरल हूँ, पर नासमझ नही
हाँ मैं सहज हूँ, पर रुक्ष नही
हाँ मैं निश्चल हूँ, पर बलहीन नही
हाँ मैं निर्मल हूँ, पर अपूर्ण नही
हाँ मैं कोमल हूँ, पर दुर्बल नही
हाँ मैं जीवन हूँ, पर असहाय नही
मैं प्रेम हूँ, मैं सिर्फ प्रेम हूँ
हाँ, इसलिए तो मैं एक स्त्री हूँ, मैं एक स्त्री ही रहना चाहूँगी
मैं कभी भी पुरुष न बनना चाहूँगी
मैं कभी भी पुरुष न बनना चाहूँगी



डॉ नम्रता कुलकर्णी




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