नारी !

गुजर रहे उम्र के दिन, महीने और साल, 
मेहँदी लगाकर ढक रही ये सुनहरे बाल। 

कोई कहे काकी, मौसी, नानी या दादी, 
सुनकर ये बड़े ख़िताब होता है जी बेहाल। 

क्यों नही दिखता ये दिल अभी भी है जवान, 
बचपन में मारते थे ताने "अरे जा रही देखो माल"। 

मयकशी चढ़ती, शराब जितनी हो पुरानी, 
वाइजों को है तजुर्बा, फिर पूछते क्यों सवाल? 

हाय!!! अंगूर थी, कमसिन कली नादान, 
बनी किशमिश मीठी, कह दूँ दिल का हाल। 

निकल पड़ी जब घर से सजधज लगे होंठ लाल, 
पड़ोसी सोचे शायद काली है इसकी दाल।

जाऊँ गर कभी खेलने, भागने, दौड़ने, 
कहते लोग इस बूढ़ी की क्या है मजाल ? 

उम्र के इस दौर में किये बदलाव दो चार,
चलती हूँ अब थोड़ी धीरे, बदल गयी है चाल। 

बदलती इस दुनिया के देखे हैं रंग हज़ार, 
हो गयी हूँ अब सयानी, अब न फसूँ किसी के जाल। 

संभल कर रहना भाइयों अब इस नारी से, 
किसी ने की छेड़खानी तो मच जायेगा भूचाल। 

कोई कुछ भी कहे, अब जी रही खुद के लिए
चाहे बूढ़ी कहो या जवान, हैं तो हम बेमिसाल।

                          डॉ. नम्रता कुलकर्णी 



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